जगतपालक भगवान श्रीहरि विष्णु ने द्वापर युग मे अपने भक्तों का उद्धार करने और समाज में धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए अपनी सम्पूर्ण सोलह कलाओं सहित देवकी-वसुदेव के घर मे “श्रीकृष्ण” रूप में अवतार लिया था। श्रीरामावतार में भगवान ने समाज मे मर्यादा स्थापित करने के उद्देश्य से स्वयं भी मर्यादित जीवन जिया, लेकिन कृष्ण अवतार में प्रभु ने धर्म के हित मे साम दाम दण्ड भेद का उपयोग करने से भी संकोच नही किया। यही नही, बल्कि दशकों से चली आ रही रूढ़िवादी परम्पराओं को ध्वस्त कर समाज और धर्म के हित मे नई परम्पराओं को स्थापित किया। धर्म की वास्तविक परिभाषा का ज्ञान समाज को दिया।
“अहिंसा परमो धर्म, धर्म हिंसा तथैव च” अर्थात वैसे तो अहिंसा ही सबसे बड़ा धर्म है, लेकिन अगर समाज मे धर्म की रक्षा के लिए अगर हिंसा भी करनी पड़े तो वह भी जायज है। कृष्ण रूप में भगवान ने लगभग सवा सौ वर्षों तक राज किया, सोलह हज़ार एक सौ आठ विवाह किए। जी हाँ, सोलह हज़ार एक सौ आठ! जहाँ राम अवतार में अयोध्या के राजा होते हुए भी प्रभु ने एकपत्नीव्रत धारण कर समाज मे नई मर्यादा स्थापित की। वहीँ श्रीकृष्ण अवतार में प्रभु ने “सोलह हज़ार एक सौ आठ” विवाह किए थे। वैसे तो श्रीकृष्ण ने मुख्यतः आठ विवाह ही किए थे, जिनमे से “रुक्मिणी” और “सत्यभामा” प्रमुख थी, लेकिन अन्य “सोलह हज़ार एक सौ” विवाह के पीछे भी प्रभु की ही एक लीला है। आज हिन्दुबुक के पन्नो से हम आपके लिए लेकर आए है, नारायणावतार भगवान श्रीकृष्ण के सोलह हज़ार एक सौ विवाह के पीछे का रहस्य:
भगवान श्री कृष्ण की 16,108 रानियां थी, जिनमे से 8 उनकी मुख्य पटरानियां थी जिनके नाम इस प्रकार है:
रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवन्ती, कालिंदी, मित्रविन्दा, नाग्राजीति, भद्रा और लक्ष्मणा। कई लोग सवाल करते है कि 8 रानियां होते हुए भी भगवान ने अन्य 16,100 विवाह क्यों किए थे? इसका जवाब हम आपके लिए लेकर आए है।

एक समय “नरकासुर” नाम के एक राक्षस ने तीनो लोकों को दुखी कर रखा था। उसके अत्याचारों से स्वर्गलोक, पाताललोक और धरतीवासी सभी पीड़ित थे। नरकासुर ने समस्त पृथ्वी को जीतने का प्रण लिया था। एक एक कर वह समस्त राज्यो पर आक्रमण कर रहा था और अपनी आसुरी शक्तियों के बल पर सभी राज्यो पर विजय प्राप्त कर रहा था। वह जिस भी राज्य को पराजित करता, अपनी विजय के प्रतीक के तौर पर उस राज्य की सभी राजकुमारियों को बन्दी बना लेता था। इस तरह उसके पास 16,100 राजकुमारियां बन्दी बन गई। तब स्वर्ग के अधिपति देवराज इंद्र ने श्रीकृष्ण के पास जाकर उन्हें नरकासुर के अत्याचारों से अवगत कराते हुए उनसे नरकासुर का वध कर पृथ्वी को अधर्म से मुक्त करने की विनती की। श्रीकृष्ण ने तो अवतार ही धर्म की स्थापना के लिए लिया था, अतः वे नरकासुर का वध करने चल पड़े। नरकासुर के पास जाकर श्रीकृष्ण ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। दोनो के बीच भयंकर युद्ध हुआ, अंत मे भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से नरकासुर का अंत कर दिया। नरकासुर के अंत के साथ ही उसके अत्याचारों से पीड़ित प्रजा ने चैन की सांस ली। अधर्म का नाश हुआ, धर्म की विजय हुई। भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर के कारागार से सभी 16,100 राजकुमारियों को मुक्त करा दिया और उन्हें अपने अपने राज्य लौट जाने को कहा।
राजकुमारियों ने वापस जाने से मना कर दिया। क्योंकि वर्षों तक एक असुर के कारागार में बन्द रहने के बाद उनके राज्य की प्रजा और उनका परिवार ही उन्हें स्वीकार नही करता। उस वक्त यह एक अजीब सी रूढ़िवादी प्रथा थी कि अगर कोई राजा किसी दूसरे राज्य की महिलाओं को बंदी बना लेता था तो उस महिला के अपने राज्य और अपने परिवार के पास वापस लौटने के सारे रास्ते बन्द हो जाते थे। कोई भी उन्हें स्वीकार नही करता था। समाज के अनुसार अब वे सभी राजकुमारियां कलंकित हो चुकी थी। अब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य यह भी था कि सदियों से चली आ रही अनैतिक परम्पराओं को ध्वस्त कर नई परम्पराओं को स्थापित करना। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी राजकुमारियों पर लगा कलंक मिटाने के लिए स्वयं ही उन सब से विवाह कर लिया और उन्हें लेकर द्वारका आ गए।

श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने सभी रानियों को एक एक महल और सौ सौ दासियाँ दी थी। सम्पूर्ण सोलह कलाओं के साथ अवतरित हुए प्रभु श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया द्वारा स्वयं को 16,108 रूपों में विभक्त कर लिया था और वे एक ही समय मे सभी रानियों के पास उपस्थित रहते थे।