असुरराज बलि ने वामन अवतारी श्रीहरि विष्णु को तीन पग भूमि दान में दी थी, प्रभु ने विराट स्वरूप में एक पग में नीचे के सात लोक (अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल लोक) नाप लिए, दूसरे पग में ऊपर के सात लोक (भू, भुवः, स्वः, मह, जन, तप और सत लोक) नाप लिए और बलि से कहा कि बता अब तीसरा पग कहाँ रखूं? बलि ने बड़ी विनम्रता से कहा कि प्रभु एक बात बताइये, धन बड़ा होता है कि धनवान? प्रभु ने कहा, धन का मालिक धनवान उसके धन से बड़ा होता है। तब बलि ने कहा, प्रभु आपने दो पग में मेरा सारा धन ही नापा है, अब तीसरे पग में मुझ धनवान को भी नापकर अपनी दक्षिणा पूर्ण कीजिए। वामन भगवान राजा बलि के चातुर्य से बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने अपना तीसरा पग राजा बलि के सर पर रख दिया। आकाशमण्डल से यह अनुपम दृश्य देख रहे भक्तराज प्रह्लाद बड़े खुश हुए, कहने लगे- प्रभु मुझे तो आपने सिर्फ अपनी गोद मे स्थान दिया था, लेकिन बड़भागी तो ये मेरा पोता है जिसके सर पर आपने अपना चरण रख दिया।
श्रीहरि विष्णु ने प्रसन्न होकर बलि से कहा- “राजन, मैं यहाँ तुमसे तुम्हारा सब कुछ छीनने आया था, लेकिन अपने वचन के प्रति दृढ़ रहकर तुमने जो धर्मपरायणता दिखाई है उससे प्रसन्न होकर अब तुम्हे तुम्हारा सब कुछ वापस देता हूँ। तुमने इन्द्र बनने के उद्देश्य से 100 यज्ञ करने का जो संकल्प लिया था वो पूर्ण हो चुका है इसीलिए तुम “शतक्रतु” की पदवी धारण कर चुके हो, इसीलिए इन्द्र तो तुम बनोगे लेकिन अगले “मन्वन्तर” के। तब तक के लिए मैं तुम्हे “सुतल लोक” का राजा बनाता हूँ, जहाँ स्वर्ग के समान ही सुख और ऐश्वर्य है। तुम मुझसे और भी कुछ मांगना चाहते हो तो वह भी मांग लो।” बलि ने प्रभु से कहा- यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही है, तो बस यही वरदान दीजिए कि आपकी ये मनमोहक छवि मेरी दृष्टि से कभी ओझल न हो।” श्रीहरि ने कहा- “तथास्तु! और बलि के साथ ही सुतल लोक चले गए। सुतल लोक में श्रीहरि विष्णु वामन रूप में ही बलि के महल के द्वारपाल बन गए जिससे बलि आते जाते प्रभु की मनमोहक छटा निहारते रहता।
उधर देवी लक्ष्मी जी चिंतित हो गई, की भगवान कब तक सुतल लोक में रहेंगे। नारद जी ने देवी लक्ष्मी को एक उपाय बताया, देवी लक्ष्मी अपना भेष बदल कर सुतल लोक में आ गई और राजा बलि जब नगर भ्रमण से वापस अपने महल जा रहे थे तो उसी रास्ते मे बैठकर रोने लगी। राजा बलि ने जब एक स्त्री का रुदन सुना तो उसे बुलाकर रोने का कारण पूछा। देवी लक्ष्मी ने कहा, “महाराज, भगवान का दिया हुआ सब कुछ है मेरे पास लेकिन कोई भाई नही है। संसार की बहनों को जब अपने भाइयों को दुलार करते देखती हूँ तो रुलाई आ जाती है।” राजा बलि ने कहा, बस इतनी सी बात। देखो देवी! तुम्हारा कोई भाई नही है तो मेरी भी कोई बहन नही है। मैं तुम्हे अपनी धर्म बहन स्वीकार करता हूँ, देवी लक्ष्मी ने भी बलि को अपना धर्म भाई स्वीकार कर लिया। बलिराजा देवी लक्ष्मी को लेकर अपने महल में आ गए। देवी लक्ष्मी ने राजा बलि को रक्षा सूत्र बांधा, बलि ने कहा- “बताइये बहन जी, आपको उपहार में क्या दूँ?” देवी लक्ष्मी ने कहा कि – “भैया, भगवान का दिया सब कुछ है, भाई की कमी थी वो भी आज मिल गया , अब बस एक द्वारपाल की कमी और है। मुझे तुम्हारा ये द्वारपाल ही उपहार में दे दो।”
राजा बलि सब समझ गए की ये कोई और नही देवी लक्ष्मी ही है। बलि ने कहा- “देवी जी, तुम दोनों पति पत्नी एक नम्बर के छलिया हो, पहले पतिदेव ने वामन रूप लेकर छला, अब आपने ठग लिया।” राजा बलि ने नारायण को अपने वचन से मुक्त करते हुए उनका हाथ देवी लक्ष्मी के हाथों में देते हुए कहा- “दुनिया के समस्त जीव दो ही जगह हाथ पसारते है, या तो नारायण के सामने या लक्ष्मी के सामने, लेकिन बड़भागी तो राजा बलि है जिसके सामने लक्ष्मीनारायण दोनो ने हाथ पसारा।”
तबसे ही बलि का दान जगत में “बलिदान” के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कोई देश के लिए बलिदान होता है, कोई धर्म के लिए बलिदान होता है। बलिदान मतलब- बलि जैसा दान। जो किसी पर अपना सर्वस्व लूटा दे, अपने आप को भी लूटा दे वह “बलिदान”
रक्षासूत्र बांधने का भी मंत्र है :
“येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:
तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:”
अर्थात- जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को (देवी लक्ष्मी द्वारा) धर्म से बांधा गया था, उसी रक्षासूत्र से मैं तुम्हे बांधता हूँ। हे रक्षासूत्र! तुम धर्म के प्रति स्थिर रहना।